हिन्दू धर्म के संरक्षण की आवश्यकता: महेश स्वरूप महाराज

धर्म तभी बचता है, जब उसकी पीढ़ियों में पहचान बनी रहती है

आज के दौर में जब बच्चे अंग्रेजी माध्यम के स्कूलों में शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं, तो उनके चारों ओर एक ऐसा वातावरण बनता जा रहा है, जिसमें भारतीय संस्कृति और धार्मिक मूल्यों की जगह पश्चिमी त्योहारों और परंपराओं ने ले ली है। बच्चा जब स्कूल में कदम रखता है, तो वहां उसे “सांता क्लॉज”, “ईस्टर”, “हैलोवीन” जैसी कहानियाँ और गतिविधियाँ मिलती हैं, परन्तु “राम”, “कृष्ण”, “हनुमान”, “दुर्गा” जैसे हमारे आदर्श चरित्रों की उपस्थिति कहीं खो सी गई है।

धार्मिक विरासत से कटते रिश्ते

हमारे बच्चे अब अपने दादा-दादी, नाना-नानी के साथ उतना समय नहीं बिता रहे हैं, जितना कभी हमारे बचपन में होता था। यही लोग कभी हमें लोक कथाएँ, देवी-देवताओं के किस्से, रीति-रिवाजों का महत्व और अपने क्षेत्र की धार्मिक परंपराएँ सिखाया करते थे। अब जब ये परंपरागत ज्ञान देने वाले स्त्रोत कम हो रहे हैं, तो बच्चों को यह भी नहीं पता कि हिमाचल या उत्तराखंड जैसे पवित्र क्षेत्रों में कौन से लोक देवता पूजे जाते हैं, या किन स्थलों का क्या धार्मिक महत्व है।

पश्चिमी प्रचार बनाम भारतीय आत्मा

शिक्षा का उद्देश्य केवल नौकरी पाना नहीं, बल्कि व्यक्ति को अपनी जड़ों से जोड़ना भी होना चाहिए। लेकिन जब हम अंग्रेज़ी माध्यम के स्कूलों में केवल विदेशी त्योहारों को मना कर बच्चों के मानस में ‘एक ही धार्मिक पहचान’ भरने लगते हैं, तो यह हमारे धार्मिक अस्तित्व पर एक प्रकार का सांस्कृतिक हमला बन जाता है।

समाधान: लोकधर्मी शिक्षा और साहित्य का पुनरुत्थान

आज आवश्यकता है कि कुछ ऐसे लेखक, शिक्षक और सामाजिक कार्यकर्ता सामने आएं जो बच्चों के लिए स्थानीय और धार्मिक कहानियाँ, चित्र पुस्तकों के माध्यम से तैयार करें। ऐसी पुस्तकें जो कक्षा पाँच तक के बच्चों को सरल, रोचक और नैतिक कहानियाँ प्रदान करें – जैसे कि शिमला की श्यामला माता, कुल्लू के देवता, मंडी के बाबा भूतनाथ, नैनीताल की नैना देवी आदि। इन कहानियों को स्थानीय भाषा और चित्रों के साथ प्रस्तुत किया जाए ताकि बच्चों को न केवल हिन्दू धर्म की जानकारी हो बल्कि अपनी जड़ों से जुड़ाव भी महसूस हो।

शिक्षा प्रणाली में बदलाव की जरूरत:-

इन कहानियों और पुस्तकों को स्कूलों में शामिल करना अत्यंत आवश्यक है। जैसे हम पश्चिमी कहानियों को बिना सोचे स्वीकार कर लेते हैं, वैसे ही हमें अपने धर्म और संस्कृति की शिक्षाओं को भी स्थान देना होगा। बाल मन स्वाभाविक रूप से जिज्ञासु होता है, उन्हें बस दिशा दिखाने की आवश्यकता है।

निष्कर्ष

हमें यह समझना होगा कि हिन्दू धर्म केवल पूजा-पाठ नहीं, बल्कि एक जीवन पद्धति है, जो प्रकृति, लोकाचार, और सह-अस्तित्व की शिक्षा देता है। यदि हम चाहते हैं कि हमारा धर्म और संस्कृति आने वाली पीढ़ियों तक जीवित रहे, तो इसकी नींव बचपन में ही डालनी होगी। यह कोई किसी के विरुद्ध षड्यंत्र नहीं कह रहा, लेकिन यह ज़रूर कह रहा है कि जब तक हम अपने धर्म को प्राथमिकता नहीं देंगे, कोई और क्यों देगा?

अब समय है कि हम सब मिलकर बच्चों के लिए अपने धर्म की कहानियाँ, संस्कार और नैतिक शिक्षाएँ फिर से जीवित करें – क्योंकि धर्म तभी बचता है, जब उसकी पीढ़ियों में पहचान बनी रहती है।