“एंटी-अडल्टरेशन” यानी मिलावट विरोधी कानून, आमतौर पर खाद्य पदार्थों में मिलावट को रोकने के लिए बनाया गया है। इसका उद्देश्य है कि हम जो कुछ भी खाएं वह शुद्ध, सुरक्षित और स्वास्थ्यवर्धक हो। लेकिन आज के सामाजिक परिदृश्य को देखकर एक विचार उभरता है—क्या मिलावट अब केवल खाद्य पदार्थों तक सीमित रह गई है?
समाज का गहराई से विश्लेषण करें तो पाएंगे कि आज इंसान स्वयं ‘मिलावटी’ हो चला है। उसके विचारों में स्वार्थ, कर्मों में छल, और नीयत में संदेह की परछाइयाँ साफ़ नज़र आती हैं। धार्मिक भावनाएं, जो कभी आत्मा की शुद्धता और समाज की समरसता का प्रतीक थीं, अब राजनीतिक एजेंडा और साम्प्रदायिक उद्देश्यों का साधन बन चुकी हैं। धर्म, अब मार्गदर्शन नहीं, बल्कि भ्रम और भय का कारण बनता जा रहा है।
तो सवाल उठता है—क्या हमें अब एक ऐसे “एंटी-अडल्टरेशन कानून” की ज़रूरत है, जो केवल उपभोग की वस्तुओं तक सीमित न होकर, मानवीय सोच, आचरण और नैतिक मूल्यों पर भी लागू हो?
यदि उत्तर “हाँ” है, तो हमें ऐसे सामाजिक और नैतिक कानूनों की आवश्यकता है जो मनुष्य को उसके मूल स्वभाव की याद दिलाएं—जिसमें सच्चाई, करुणा, और धरती से उसका गहरा संबंध शामिल हो।
निष्कर्षतः
जब तक हम स्वयं को—अपने विचारों, व्यवहारों और जीवन मूल्यों को—शुद्ध नहीं करेंगे, तब तक कोई भी कानून, चाहे वह भोजन की शुद्धता से जुड़ा हो या सामाजिक समरसता से, अपने पूर्ण उद्देश्य को प्राप्त नहीं कर सकेगा।
अब समय आ गया है कि हम ‘मिलावट’ को केवल थाली में नहीं, बल्कि आत्मा में भी पहचानें और उसे दूर करने की ईमानदार पहल करें।
……लेखक: ब्रह्मचारी महेश स्वररूप महाराज