हम एक ऐसे युग में प्रवेश कर चुके हैं जहाँ देश की ताकत केवल उसकी अर्थव्यवस्था या राजनीति से नहीं, बल्कि उसकी सांस्कृतिक चेतना, आत्मबल और इच्छाशक्ति से तय होती है। आज जब भारत वैश्विक मंच पर एक निर्णायक भूमिका निभा रहा है, तब यह आवश्यक है कि हम अपने अतीत से सीखें, अपनी जड़ों को समझें और एक आत्मनिर्भर, आत्मगौरव से युक्त भारत की ओर बढ़ें।
भारत की सनातनी संस्कृति सदियों से केवल पूजा-पाठ तक सीमित नहीं रही, बल्कि वह ज्ञान, विज्ञान, और युद्ध-कला का भी एक समृद्ध स्रोत रही है। महाभारत और रामायण जैसे महाकाव्य केवल धार्मिक आख्यान नहीं, बल्कि उस युग की रणनीतिक, वैज्ञानिक और नैतिक परिपक्वता के भी प्रमाण हैं।
इस विषय में सबसे प्रमुख उदाहरण हैं नागा साधु—जिन्हें साधुओं की सैन्य शाखा कहा जाता है। तपस्या और संयम का जीवन जीने वाले ये साधु जब भी धर्म और राष्ट्र पर संकट आया, तो इन्होंने शस्त्र उठाकर शत्रुओं को मुंहतोड़ जवाब दिया। चाहे वह महाराणा प्रताप की मुगलों से युद्ध हो, 1666 में हरिद्वार कुंभ पर औरंगज़ेब का हमला हो, या फिर 1751 में प्रयागराज कुंभ में अहमद अली बंगस का आक्रमण—हर जगह नागा साधुओं ने अपने पराक्रम से भारत की रक्षा की। जब औरंगज़ेब ने वाराणसी के विश्वनाथ मंदिर पर हमला किया, तो इन्हीं साधुओं ने बलिदान देकर मंदिर की रक्षा की।
इतिहास में दर्ज है कि 1757 में नागा साधुओं ने अहमद शाह अब्दाली को मथुरा-वृंदावन को लूटने से रोका। उन्होंने गुजरात में जूनागढ़ के निज़ाम से भी युद्ध किया और विजय प्राप्त की। ब्रिटिश शासन में भी बंगाल के सन्यासी विद्रोह में इनका योगदान उल्लेखनीय रहा, जिसे बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय ने ‘आनंद मठ’ में अमर कर दिया। यही वह ग्रंथ है जिससे हमारा राष्ट्रगीत वंदे मातरम् लिया गया है।
यह सब केवल गौरवगाथाएँ नहीं हैं—यह उस मानसिकता और उस आत्मबल की पहचान हैं जो भारत की आत्मा में सदा से रची-बसी है।
लेकिन वर्तमान समय चिंताजनक है। हम भौतिक समृद्धि के पीछे भागते हुए अपनी जड़ों से दूर होते जा रहे हैं। समाज मानसिक रूप से दुर्बल होता जा रहा है। शरीर भले ही स्वस्थ दिखें, परंतु आत्मगौरव, आत्मरक्षा और राष्ट्रभक्ति के विचारों से समाज विमुख होता जा रहा है।
हमें यह स्वीकार करना होगा कि यदि भारत को फिर से शक्ति और सम्मान की दृष्टि से विश्व में प्रतिष्ठा दिलानी है, तो हमें आत्मनिर्भर बनना होगा। अपने हथियार स्वयं विकसित करने होंगे, अपनी तकनीक को पुनर्जीवित करना होगा, और सबसे बड़ी बात—अपनी इच्छाशक्ति को फिर से जगाना होगा।
इसके लिए शिक्षा प्रणाली में सनातन विचारधारा का समावेश अति आवश्यक है। यह केवल धार्मिक शिक्षा नहीं है—बल्कि एक ऐसी चेतना है जो हमारी नई पीढ़ी को यह समझाने में सक्षम होगी कि वे एक ऐसे राष्ट्र की संतान हैं, जिसने योग, गणित, खगोलशास्त्र ही नहीं, बल्कि सैन्य और रणनीतिक ज्ञान में भी विश्व को दिशा दी है।
आज आवश्यकता है कि सरकार, समाज और व्यक्ति—तीनों स्तरों पर इच्छाशक्ति जागृत हो। तभी एक ऐसा भारत उभरेगा जो आत्मनिर्भर होगा, आत्मगौरव से भरा होगा, और जिसे कोई भी बाहरी ताकत झुका नहीं पाएगी।
यह समय है अपनी परंपराओं को आधुनिक संदर्भ में पुनः परिभाषित करने का—जहाँ नागा साधुओं का साहस, हमारे सनातन ग्रंथों की नीति, और हमारी सांस्कृतिक चेतना मिलकर भारत को फिर से विजयी भारत बना सके।