“हमने गोली खाई है, चलाई नहीं”  उत्तराखंड आंदोलन की अमर गाथा

हमने गोली खाई है, चलाई नहीं”  उत्तराखंड आंदोलन की अमर गाथा

खटीमा और मसूरी गोलीकांड की बरसी पर गूंजे शहादत के स्वर, 42 बलिदानों की विरासत आज भी न्याय की बाट जोह रही

देहरादून, 1 सितम्बर।, (उत्तराखंड बोल रहा है)
उत्तराखंड राज्य की नींव खून और आंसुओं से सींची गई थी। 1994 के खटीमा और मसूरी गोलीकांड ने पूरे आंदोलन को निर्णायक मोड़ दिया। शांतिपूर्ण आंदोलन पर गोलियों की बरसात ने न केवल 42 जिंदगियां लील लीं, बल्कि पूरे पहाड़ की आत्मा को झकझोर दिया। आज, बरसों बाद भी इन घटनाओं की गूंज और शहीदों की पुकार न्याय की तलाश में है।

खटीमा: पहला रक्तपात

1 सितम्बर 1994 को खटीमा की धरती पर पुलिस की अंधाधुंध फायरिंग में प्रताप सिंह, सलीम अहमद, भगवान सिंह, धर्मानन्द भट्ट, गोपीचंद, परमजीत सिंह, रामपाल और भुवन सिंह जैसे जांबाज मातृभूमि के लिए शहीद हो गए।

मसूरी: दूसरा हत्याकांड

अगले ही दिन 2 सितम्बर 1994 को मसूरी की सड़कों पर फिर गोलियां गूंजीं। निर्दोष आंदोलनकारियों और महिलाओं को भी नहीं बख्शा गया। बेलमति चौहान, हंसा धनैई शहीद हुईं और गोली चलाने का विरोध करने वाले डीएसपी उमाकांत त्रिपाठी ने भी अपने प्राण न्यौछावर कर दिए।

आंदोलन की अग्निपरीक्षा

आंदोलन के प्रत्यक्षदर्शी और उत्तराखंड क्रांति दल के वरिष्ठ नेता सुरेंद्र कुकरेती बताते हैं—

“खटीमा और मसूरी केवल तारीखें नहीं, बल्कि वे रक्तरंजित पड़ाव हैं जिन्होंने अलग राज्य की चेतना को अमर कर दिया। हमने गोली खाई है, चलाई नहीं। हमने मार खाई है, मारा नहीं।”


कुकरेती के अनुसार, 1996 में आंदोलन ने नया नारा दिया—“राज्य नहीं तो चुनाव नहीं”। लाखों शपथ पत्रों ने राष्ट्रीय दलों को झुकने पर मजबूर किया, हालांकि बाद में धोखा भी झेलना पड़ा।

प्रधानमंत्री की सभा में भी गूंजा विरोध

देहरादून परेड ग्राउंड में प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी की सभा में आंदोलनकारियों ने मंच का तार खींचकर भाषण बाधित कर दिया। सुरेंद्र कुकरेती इस दौरान बुरी तरह लहूलुहान हो गए। महीनों तक उनकी आंखें और कान घायल रहे। मातृशक्ति ने उन्हें अपने प्राणों की बाज़ी लगाकर बचाया।

राज्य मिला, पर सवाल बाकी

9 नवम्बर 2000 को पृथक उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ, परंतु आज तक खटीमा और मसूरी गोलीकांड के दोषियों को सजा नहीं मिली। शहीदों की शहादत से उपजा यह राज्य आज भी उन 42 बलिदानों का ऋणी है।

फ्रंट पेज नोट:
यह रिपोर्ट न केवल उत्तराखंड के जन्म की कहानी कहती है बल्कि यह भी याद दिलाती है कि हर सितम्बर राज्य के नागरिकों पर यह नैतिक जिम्मेदारी है कि वे शहीदों के सपनों का उत्तराखंड बनाने की दिशा में ईमानदारी से काम करें